आलोचना से तिलमिलाई अफसरशाही:पत्रकार को ही कठघरे में खड़ा किया!
Jashpur/अफसरशाही का असली चेहरा एक बार फिर जनता के सामने आ गया है। जनसंपर्क विभाग की एक महिला अधिकारी इन दिनों ऐसी बौखलाहट में हैं मानो किसी पत्रकार ने उनके खिलाफ खबर छापकर उनके सिंहासन को हिला दिया हो। घटना सामान्य लग सकती है, लेकिन इसके मायने गहरे हैं। यह केवल एक फोटो या सोशल मीडिया पोस्ट का मामला नहीं है, बल्कि यह सवाल है – क्या सच लिखने वाला पत्रकार अब अपराधी कहलाएगा? क्या लोकतंत्र में कलम चलाना पुलिस थाने का रास्ता दिखाता है?
घटना की पृष्ठभूमि!
जशपुर जिले में एक पत्रकार ने विभागीय लापरवाही से जुड़ी खबर प्रकाशित की। खबर केवल शब्दों में नहीं थी, बल्कि उसमें संबंधित अधिकारी का फोटो भी था। आमतौर पर यह पत्रकारिता का हिस्सा माना जाता है। लेकिन इस बार अधिकारी महोदया का धैर्य जवाब दे गया। वे सीधे थाने पहुंचीं और आवेदन में लिखा – “मेरी अनुमति के बिना मेरा फोटो डाला गया और मेरे खिलाफ झूठा संदेश प्रसारित किया गया।”
अब बड़ा सवाल उठता है – क्या पत्रकार खबर छापने से पहले अब अनुमति-पत्र लेकर आएंगे? क्या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अब अफसरों की इजाज़त से सांस लेगा?
जनता की प्रतिक्रिया – व्यंग्य और आक्रोश!
यह मामला जैसे ही सार्वजनिक हुआ, जनता ने तंज कसना शुरू कर दिया। सोशल मीडिया पर सवाल गूंजने लगे –
• “अगर हर आलोचना पर केस दर्ज होने लगे, तो देश के सारे थाने प्रेस क्लब में बदल जाएंगे।”
• “जनसंपर्क विभाग अगर जनता की आवाज़ से ही डरने लगे, तो इसका नाम बदलकर जनसे बचाव विभाग कर देना चाहिए।”
लोग कहने लगे कि यह कोई साधारण नाराज़गी नहीं, बल्कि सत्ता की मानसिकता का आईना है। सच को सहन न कर पाने वाली अफसरशाही अपनी कमज़ोरी छिपाने के लिए पत्रकारों को ही निशाना बना रही है।
अफसरशाही की पुरानी चाल!
यह पहली बार नहीं है जब सच बोलने वाले पत्रकार को ही अपराधी बना दिया गया हो। प्रशासन की पुरानी चाल यही रही है – सवाल उठाओ तो मुकदमा ठोक दो। कलम उठाओ तो नोटिस भेज दो। और अगर खबर असर दिखाने लगे तो पत्रकार पर एफआईआर दर्ज करवा दो।असल में, यह “सत्य बनाम सत्ता” की लड़ाई है। जब पत्रकार ने आईना दिखाया तो अधिकारी महोदया को अपना चेहरा ही असहज लगने लगा। और जब सच असहज लगे, तो सबसे आसान रास्ता यही होता है – सच बताने वाले को अपराधी ठहरा दो।
लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत!
पत्रकारिता हमेशा से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कही जाती रही है। लेकिन अगर यही स्तंभ कमजोर किया जाएगा, तो लोकतंत्र का पूरा ढांचा हिल जाएगा। अगर हर खबर पर अधिकारी पुलिसिया दबाव बनाएंगे, तो आने वाले समय में पत्रकारिता केवल सरकारी विज्ञप्ति छापने तक सीमित रह जाएगी। सवाल उठाना, आलोचना करना और जनता की आवाज़ बनना ही पत्रकार का धर्म है। इसे अपराध करार देना लोकतंत्र की आत्मा पर सीधा हमला है।
अधिकारी महोदया के लिए व्यंग्यात्मक सलाह!
जनता के बीच इस घटना को लेकर एक अलग तरह का माहौल है। लोग मज़ाक में कह रहे हैं –
“अगर अधिकारी महोदया आलोचना और फोटो से इतना घबराती हैं, तो बेहतर होगा कि वे अपनी कुर्सी छोड़कर किसी आश्रम में साधना करने चली जाएं। वहां न पत्रकार होंगे, न कैमरे, न सोशल मीडिया। बस शांति ही शांति होगी।”
पत्रकारों की एकजुटता!
जिले के पत्रकारों ने इस पूरे मामले की तीखी निंदा की है। उनका कहना है कि यह सीधा हमला है पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर। “अगर आज एक पत्रकार पर ऐसा केस होता है, तो कल हर पत्रकार पर इसका खतरा मंडराएगा। सच लिखना अपराध नहीं है, बल्कि यह जनता के अधिकार की रक्षा है।”
जनता की आवाज़ बनाम सत्ता की बेचैनी!
असल में, यह विवाद किसी एक खबर या फोटो का नहीं है। यह संघर्ष है जनता की आवाज़ बनाम अफसरशाही की बेचैनी का। जब अधिकारी खुद को जनता से ऊपर समझने लगते हैं, तभी ऐसे मामले जन्म लेते हैं। लेकिन सच की ताकत इतनी प्रबल होती है कि उसे दबाया नहीं जा सकता।
सच से डरना सत्ता की हार!
यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि लोकतंत्र में सत्ता और अफसरशाही की असली ताकत क्या है। अगर वे सच से डरने लगे हैं, तो यह उनकी हार है, जीत नहीं। पत्रकार को अपराधी ठहराने की यह कोशिश जनता की अदालत में बुरी तरह फेल होगी।
अंततः, जनता का सवाल यही है –“क्या अब पत्रकारिता अपराध है? क्या कलम चलाने वालों के लिए जेल की सलाखें तय हैं?”
यदि ऐसा है तो आने वाले दिनों में लोकतंत्र का भविष्य सचमुच भयावह होगा।
लेकिन इतिहास गवाह है – सच को दबाया जा सकता है, मिटाया नहीं जा सकता। अफसरशाही कितनी भी बौखलाए, अंत में जीत हमेशा सच की होती है।