“70 साल का इंतज़ार टूटा: गोवा की जनजातियों को मिला लोकतंत्र में हक, संसद में गरजे अधिकार की आवाज़!”
New delhi/पणजी/ भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आज एक ऐतिहासिक अध्याय जुड़ गया। गोवा की उपेक्षित अनुसूचित जनजातियों की दशकों पुरानी मांग को आखिरकार संसद ने मान्यता दे दी। लोकसभा ने मंगलवार को अभूतपूर्व राजनीतिक तूफान के बीच ‘गोवा राज्य के विधानसभा क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व का पुनर्समायोजन विधेयक, 2025’ पारित कर दिया। यह विधेयक अब राज्य की 40 सदस्यीय विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों को भी आरक्षण का संवैधानिक हक़ देगा।
लेकिन यह निर्णय यूं ही नहीं आया। इसके लिए सदन में हंगामा, नारेबाज़ी, विपक्ष का विरोध और सत्ता पक्ष की दृढ़ इच्छाशक्ति – सब कुछ देखने को मिला। जहां पूरा विपक्ष बिहार की मतदाता सूची में कथित धांधली पर बहस की मांग को लेकर वेल में नारे लगाता रहा, वहीं कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने शोर-शराबे के बीच यह विधेयक पेश कर दिया। संसद की कार्यवाही में लगे हुए टीवी चैनलों ने उस क्षण को “संवैधानिक साहस” की संज्ञा दी, जब बिना बहस के ध्वनिमत से यह विधेयक पारित कर दिया गया।
हंगामे के बीच संवैधानिक चमत्कार!
यह विधेयक 2024 में इसी तारीख को लोकसभा में पेश किया गया था, लेकिन राजनीतिक उठा-पटक के कारण यह लटका हुआ था। आज जब यह विधेयक पारित हुआ, तो न सिर्फ गोवा की राजनीतिक तस्वीर बदल गई, बल्कि एक ऐसा सामाजिक न्याय का अध्याय भी खुल गया, जिसकी मांग 70 वर्षों से की जा रही थी।
विधेयक का मूल सार यह है कि गोवा में अनुसूचित जनजातियों की आबादी 1.49 लाख (2011 जनगणना) को पार कर चुकी है, जबकि अनुसूचित जातियों की संख्या 25,449 ही है। इसके बावजूद, राज्य की विधानसभा में एकमात्र आरक्षित सीट अनुसूचित जातियों के लिए है – अनुसूचित जनजातियों के लिए एक भी सीट नहीं! यह असंतुलन अब खत्म होगा।
विधेयक के मुताबिक, अब गोवा की विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए भी आरक्षित सीटें तय की जाएंगी, ताकि वे भी लोकतंत्र में अपना प्रतिनिधित्व पा सकें और नीति निर्माण में भागीदार बन सकें।
लोकसभा में विपक्ष का भूचाल!
जब विधेयक पारित किया जा रहा था, तब विपक्षी दलों – विशेषकर कांग्रेस, राजद, डीएमके, व माकपा – ने जोरदार विरोध दर्ज कराया। उनकी मांग थी कि पहले बिहार की मतदाता सूची में चल रहे ‘गंभीर अनियमितताओं’ की जांच होनी चाहिए और उस पर बहस होनी चाहिए। लेकिन सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि समाज के हाशिये पर पड़े समुदायों को न्याय देने में और देरी बर्दाश्त नहीं की जा सकती।
लोकसभा ने विधेयक पारित होने के तुरंत बाद कार्यवाही दिन भर के लिए स्थगित कर दी। उनके चेहरे पर गंभीरता थी, मानो वे जानती थीं कि जो हुआ वह ऐतिहासिक तो है, लेकिन विपक्ष के साथ सामंजस्य का अभाव चिंता का विषय बन सकता है।
गोवा में जश्न का माहौल, जनजातीय समुदाय में खुशी की लहर!
जैसे ही विधेयक पारित हुआ, गोवा के ग्रामीण इलाकों – विशेषकर सत्तारी, केपे, कणकोण और धरबांदोड़ – में ढोल-नगाड़ों की आवाज़ सुनाई देने लगी। आदिवासी समुदाय के लोगों ने मिठाई बांटी, लोकगीत गाए और ‘जय संविधान’ के नारे लगाए। गौंड जनजाति के लोगों ने कहा – “हमने तो कभी सोचा भी नहीं था कि दिल्ली में हमारी आवाज़ कोई सुनेगा। आज ऐसा लग रहा है जैसे आज़ादी हमें अब मिली हो।”
गोवा ट्राइबल फोरम के अध्यक्ष ने इसे “जनजातीय स्वाभिमान की जीत” बताया। उन्होंने कहा – “हम कोई खैरात नहीं मांग रहे थे, हम अपने अधिकार मांग रहे थे। आज वह अधिकार संविधान के तहत हमें मिला है।”
राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में क्या है मायने?
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, यह विधेयक न केवल गोवा की जातीय-सामाजिक संरचना में बदलाव लाएगा, बल्कि आने वाले विधानसभा चुनावों में समीकरण भी बदल देगा। गोवा में लगभग 10 प्रतिशत जनजातीय आबादी है, जो अब सीधे राजनीतिक मंच पर प्रभाव डाल सकती है।
वरिष्ठ पत्रकारो का कहना है – “यह सरकार की सोशल इंजीनियरिंग का हिस्सा है, लेकिन इससे जो ऐतिहासिक अन्याय हुआ था, उसकी भरपाई शुरू हुई है।”
अब आगे क्या?
विधेयक के पारित होने के बाद, अब निर्वाचन आयोग को गोवा की विधानसभा सीटों का नया परिसीमन करना होगा, ताकि अनुसूचित जनजातियों को उचित प्रतिनिधित्व मिल सके। यह प्रक्रिया आगामी छह महीनों में पूरी होने की उम्मीद है।
सरकार का दावा है कि इस कदम से न केवल राजनीतिक प्रतिनिधित्व में सुधार होगा, बल्कि जनजातीय समुदाय की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बेहतरी का रास्ता भी खुलेगा।
यह विधेयक सिर्फ एक कागज़ी दस्तावेज़ नहीं, बल्कि उन लाखों लोगों की उम्मीदों की जीत है, जो अब तक लोकतंत्र की चौखट पर खड़े थे। आज वे भी भीतर प्रवेश कर पाए – संविधान की छांव में, समानता के वादे के साथ।
“लोकतंत्र अब और समावेशी हुआ है… जनजातियों की आवाज़ अब सदन में गूंजेगी!”