“कराहती ममता की चीत्कार: दर्द की नदी पार कर खुले आसमान में जन्मा भविष्य, और सिस्टम चुप”
Chhatisgarh/बलरामपुर से एक दर्दनाक सत्य की तस्वीर छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले से आई यह तस्वीर न सिर्फ स्वास्थ्य व्यवस्था की खामियों को उजागर करती है, बल्कि शासन-प्रशासन की संवेदनहीनता पर भी एक करारा तमाचा है।
यह कहानी है सोनहत गांव की, जहां एक गर्भवती महिला को अस्पताल पहुंचाने की कोशिशें धरती की मजबूरियों और प्रशासन की चुप्पियों से टकरा गईं।
शुरुआत हुई प्रसव पीड़ा से, लेकिन दर्द का अंत कहीं दूर था…
वाड्रफनगर विकासखंड के अंतर्गत आने वाले सोनहत गांव में एक गर्भवती महिला को अचानक प्रसव पीड़ा शुरू हुई। परिजनों ने तुरंत 108 एंबुलेंस सेवा को कॉल किया। लेकिन जवाब मिला – “गाड़ी गांव तक नहीं पहुंच सकती, रास्ता ही नहीं है!”
क्योंकि गांव तक जाने के लिए कोई पक्की सड़क नहीं है। सबसे बड़ी बाधा बनी – नदी पर पुल का न होना।
मजबूरी बनी हिम्मत, और फिर शुरू हुई 15 किलोमीटर की दर्दनाक यात्रा!
महिला की हालत बिगड़ रही थी। कोई इंतजार नहीं कर सकता था। ऐसे में परिजनों ने महिला को पैदल चलने में मदद की। दर्द से कराहती वह मां चल पड़ी—कभी कंधे का सहारा लेकर, कभी हाथ पकड़कर, तो कभी खुद के आंसुओं को निगलकर।कई किलोमीटर पैदल चलने के बाद उसे एक बाइक पर बैठाया गया, जिससे रघुनाथनगर के सिविल अस्पताल तक ले जाया जा सके।
लेकिन कहानी यहां खत्म नहीं होती…
रास्ते में नदी आई, और प्रसव भी वहीं आ गया…रास्ते में नदी पड़ी, जिसमें कोई पुल नहीं था। बाइक रुक गई, और उस मां का दर्द तेज हो गया। अब महिला को उस उफनती नदी को पैदल पार करना था। और जब वह नदी पार कर रही थी, तभी प्रसव शुरू हो गया।खुले आसमान के नीचे, कुदरत की गोद में, धरती पर सबसे असुरक्षित जगह पर उसने एक नवजात को जन्म दिया। परिजन असहाय थे लेकिन जितना कर सकते थे, किया।
मां बनी, पर विश्राम नहीं मिला… फिर से उठी, फिर से चली!
बच्चे को जन्म देने के कुछ ही मिनटों बाद, महिला ने उस नवजात को गोद में उठाया, और फिर से नदी पार की। हां, आपने सही पढ़ा — डिलीवरी के तुरंत बाद, नवजात को गोद में लेकर नदी पार करना पड़ा।
यह दृश्य किसी युद्ध के मैदान से कम नहीं था। एक मां के साहस, एक नवजात के जीवन की शुरुआत और सिस्टम की नाकामी—तीनों एक साथ एक ही फ्रेम में दिखाई दे रहे थे।
अस्पताल पहुंची मां और बच्चा, लेकिन सिस्टम अब भी नहीं पहुंचा!
अंततः महिला को रघुनाथनगर अस्पताल में भर्ती कराया गया। डॉक्टरों के मुताबिक, अब मां और बच्चा दोनों खतरे से बाहर हैं। लेकिन सवाल यही है – यह जोखिम भरा जीवन क्यों?
क्यों एक मां को अपने प्रसव के लिए धरती के सबसे कठिन रास्तों से गुजरना पड़ा?
स्थानीयों की पुकार: “पुल दो, वरना जानें जाएंगी!”
यह कोई पहली घटना नहीं है। गांव के लोग बताते हैं कि बरसात के मौसम में हालात और भी बदतर हो जाते हैं। रास्ते कीचड़ में डूब जाते हैं, और नदी लील जाती है हर कोशिश को।हर बार प्रशासन से गुहार लगाई गई, पर अब तक केवल आश्वासन मिले हैं।
स्थानीय निवासी भानु सिंह ने कहा—“हम लोग पिछले 10 साल से पुल की मांग कर रहे हैं। लेकिन हर बार चुनावी वादे आते हैं और फिर भूल जाते हैं।”
पहले भी आईं ऐसी घटनाएं, लेकिन सुध लेने वाला कोई नहीं!
छत्तीसगढ़ में इस तरह की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। बस्तर अंचल में एक गर्भवती महिला को लकड़ी के सहारे पीठ पर बैठाकर नदी पार कराना पड़ा था। सरगुजा में एक वृद्ध मरीज को खाट में बांधकर 8 किलोमीटर पैदल चलाया गया था।हर बार मीडिया की हेडलाइन बनती है, सरकारें संज्ञान लेने का बयान देती हैं, लेकिन गांव वैसा का वैसा ही रहता है।
प्रश्न बड़ा है: किस ओर जाएं ये मां-बच्चे? स्वास्थ्य सेवा की ओर या भगवान भरोसे?
• क्या यह “डिजिटल इंडिया” है, जहां एक मां को डिलीवरी के लिए 15 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है?
• क्या यही ‘नारी सशक्तिकरण’ है, जहां एक महिला खुले आसमान के नीचे बच्चे को जन्म देती है, क्योंकि सरकार पुल बनाना भूल गई?
जब तक सिस्टम जागेगा, तब तक कितनी माएं नदी पार कर चुकी होंगी?
सवाल सिर्फ सोनहत गांव का नहीं है। यह सवाल पूरे देश के उन हजारों गांवों का है जहां सुविधाओं की जगह वोटों की राजनीति बसती है।जब तक पुल नहीं बनेगा, तब तक दर्द की चीखें इन नदियों में गूंजती रहेंगी।शायद अगली बार किसी और गांव में एक और मां अपने बच्चे को दर्द में जन्म देगी, और फिर भी – सिस्टम शांत रहेगा।
यह सिर्फ एक खबर नहीं, यह एक चेतावनी है… अब भी अगर नहीं जागे, तो कल की हेडलाइन किसी और मां की चीख होगी!