“लोक सेवा गारंटी या प्रशासनिक त्रासदी? राजस्व अधिकारियों पर थोपे गए असम्भव लक्ष्यों की मार!”
Raipur/छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा पारित लोक सेवा गारंटी अधिनियम का उद्देश्य था — जनता को तय समय सीमा में सेवाएं उपलब्ध कराना। परंतु यह अधिनियम अब खुद राजस्व विभाग के अफसरों के लिए एक ‘कालपत्र’ बनता जा रहा है।
जिस अधिनियम की बुनियाद पारदर्शिता और समयबद्धता पर रखी गई थी, वह अब संसाधनहीन व्यवस्था, अमानवीय कार्यभार, और बढ़ते प्रशासनिक तनाव की गाथा बन चुका है।
तय समय सीमा, लेकिन असंभव हालात!
इस अधिनियम के तहत राजस्व विभाग को अनेक सेवाएं तय समय में पूरी करनी होती हैं:
• नामांतरण – 30 दिवस,
• सीमांकन – 30 दिवस,
• बंटवारा – 30/45 दिवस,
• नक़्शा की नकल – 3/7 दिवस,
• आय/जाति/निवास प्रमाण पत्र – 7 दिवस,
इनमें से प्रत्येक सेवा की जिम्मेदारी तहसीलदार और नायब तहसीलदार के कंधों पर टिकी है — जिन्हें न साधन दिए गए हैं, न साथ।
विडंबना: न संसाधन, न स्टाफ — फिर भी आदेशों की बौछार!
अधिनियम लागू करना कोई आपत्ति नहीं, परंतु जब प्रणाली जर्जर हो और दायित्व पहाड़ जैसे हों, तब वह अधिनियम ‘न्याय नहीं, अत्याचार’ जैसा प्रतीत होता है।
वास्तविक स्थितियाँ क्या कहती हैं?
ऑपरेटरों की भारी कमी: कई तहसीलों में एक भी प्रशिक्षित डाटा एंट्री ऑपरेटर नहीं। काम कभी बाबू करते हैं, कभी खुद अधिकारी!
कंप्यूटर सिस्टम बेहाल: कई जगह 10-15 साल पुराने सिस्टम, जो हर तीसरे दिन क्रैश होते हैं। नेटवर्क की स्पीड इतनी धीमी कि एक फॉर्म अपलोड करने में घंटों लग जाए।
प्रिंटर, स्कैनर और स्टेशनरी तक का खर्च खुद अधिकारी उठा रहे हैं। शासन ने तो जैसे ‘सब कुछ जुगाड़ से कर लो’ का आदेश दे दिया है!
वाहन-चालक की व्यवस्था नहीं: सीमांकन, सुनवाई, स्थल निरीक्षण जैसे कार्यों में रोजाना दौड़भाग जरूरी, लेकिन न वाहन, न ड्राइवर, न फ्यूल!
ऑनलाइन पोर्टलों का दबाव: OTP, लॉगिन, अपलोड की जटिलता में सहायक स्टाफ का नामोनिशान नहीं! अधिकारी दिनभर ‘क्लिक’ करते रह जाते हैं।
बार-बार उठी आवाज़, फिर भी सरकार ‘मौन’
छत्तीसगढ़ कनिष्ठ प्रशासनिक सेवा संघ द्वारा कई बार शासन को ज्ञापन दिए गए। मांगें बिल्कुल व्यावहारिक थीं:
• प्रत्येक तहसील में 2 कुशल ऑपरेटरों की नियुक्ति,
• डिजिटल संसाधनों का अपग्रेड,
• वाहन, ड्राइवर, फ्यूल का प्रावधान,
• नेट भत्ता और तकनीकी सहायता,
• अतिरिक्त कार्य पर मानदेय,
• लेकिन शासन ने क्या किया?
मांगें ठुकराईं, और दबाव दोगुना कर दिया!
अब अधिकारी संघ अनिश्चितकालीन हड़ताल पर हैं — लेकिन सरकार का रुख अब भी निर्विकार है।क्या ये
‘लोक सेवा’ नहीं, ‘लोक पीड़ा’ बन गई है?
सरकार द्वारा ‘लोक सेवा’ के नाम पर अधिनियम तो लागू कर दिए गए, पर जमीनी स्तर पर वो सेवा नहीं, सज़ा साबित हो रही है।
परिणाम?
• अधिकारी तनावग्रस्त, मनोबल टूटता हुआ,
• सेवाओं की गुणवत्ता में गिरावट,
• जनता निराश, समय पर प्रमाण पत्र न मिलने पर अधिकारियों से भिड़ंत,
• अधिनियम का मूल उद्देश्य धुंधला पड़ता जा रहा है,
यह प्रशासनिक असमानता नहीं तो क्या है? एक ओर डिजिटल इंडिया, ई-गवर्नेंस की बात — और दूसरी ओर पुराने सीपीयू, कटे तार और बिना पेपर वाले प्रिंटर से उम्मीदें?
संघ की मांगें — तर्कसंगत और समाधानमूलक!
छत्तीसगढ़ कनिष्ठ प्रशासनिक सेवा संघ की मांगें किसी विशेषाधिकार की नहीं, बल्कि कुशल प्रशासन की नींव हैं:
• कुशल मानव संसाधन की नियुक्ति,
• तकनीकी संसाधनों का समुचित वितरण,
• वाहनों की व्यवस्था,
• नेट भत्ता, तकनीकी स्टाफ और सहायता,
• मानवता आधारित कार्य संस्कृति,
यदि सरकार इस दिशा में त्वरित निर्णय नहीं लेती, तो राजस्व विभाग की कार्यक्षमता और जनसेवा — दोनों को भारी क्षति पहुंचेगी।
“लोक सेवा” तभी संभव, जब साधन और सहयोग हों
लोक सेवा गारंटी अधिनियम एक सराहनीय पहल है, परंतु उसे थोपने का माध्यम नहीं बनाना चाहिए।
शासन को चाहिए कि वह संघ की आवाज़ सुने, मांगों पर संज्ञान ले, और ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था बनाए — जहाँ सेवा भी हो, संवेदना भी हो।
इस वक्त सवाल सिर्फ सुविधाओं का नहीं — पूरे सरकारी तंत्र की विश्वसनीयता का है।
वरना… ‘लोक सेवा’ की जगह ‘लोक असंतोष’ का विस्फोट दूर नहीं।